जङ्गल में मंगल

जङ्गल में  मंगल
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हाथी दादा सूंड हिलाते, बड़ी जोर से चिंघाड़ा
बन्दर ने गुलाटी मारी, खों खों करता भागा।
भालू बोला कहाँ जात हो, तनिक इधर तो आओ
वो देखो शहद का छत्ता, मिलकर खायें दोनों ।
बन्दर मामा खुश होकर, लगे पेड़ पर चढ़ने
तभी शेर की सुनी दहाड़,  गुमसुम हो गये दोनों ।
पंछी भी नीड़ छोड़कर, उड़ गये मुक्त गगन में
लगे भागने सभी जीव , भय छाया सबके मन में ।।
फिर हुई चहल-पहल, थोड़ी देर रहा सुनसान
जरा देर में नाचा मोर, कोयल ने ली मीठी तान।
साथ पपीहे ने दिया, होरहा मानो गंधर्व गान
तितलियाँ भी लगी नाचने, भोंरे करते मधुर गान।
तभी वहां से गुजरी, हिरनों की इक टोली
परियां हों जैसे देवलोक की, सूरत उनकी भोली।
बराहदेव की बात निराली, कीचड़ में लथपथ हैं
साथ में उनके गैंडा जी भी, अपनी धुन में मस्त हैं ।
लो जी आगये बारहसिंघा, नीलगाय भी आई
नन्हा खरगोश फुदकता आया, दोनों कान उठाई।
इस जङ्गल की शोभा,  कोई आकर क्या वरणे
जङ्गल ही हैं प्राण हमारे, सदा ही हमको प्यारे।
जङ्गल की रक्षा करना, मानव धर्म है पहला
इन्हीं के कारण बनता है, महला और दुमहला।
अरे ओ स्वर्थी मानव! , खोट है तेरे मन में
नष्ट न कर जङ्गलों को, पछतायेगा जीवन में ।
                  ………….पछतायेगा जीवन में ।।
(हीराबल्लभ पाठक “निर्मल”
स्वर साधना संगीत विद्यालय
लखनपुर रामनगर , नैनीताल)

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