दरकते पहाड़ (कहानी)


दो-तीन दिन से लगातार बारिश हो रही थी। बरसात के मौसम में बारिश होना आम बात है। परन्तु इस बारिश में भयावहता का आभास हो रहा था। प्रिया ने ऐसी बारिश पहले कभी नहीं देखी थी। वह अपने मन के चिंतित भाव को चेहरे पर नहीं आने देना चाहती थी। उसने देखा कि घर के अन्य सदस्यों के चेहरे पर ऐसे कोई विशेष भाव नजर नहीं आ रहे थे। वे अपने दैनिक कार्य नित्य की भाँति कर रहे थे।
प्रिया का कुछ बचपन यहाँ गाँव में बीता था। कक्षा पाँच उत्तीर्ण कर वो अपने माता पिता के साथ दिल्ली चली गयी थी। उसके पिता को वहाँ किसी कम्पनी में अच्छी नौकरी मिल गई और वे बच्चों की बेहतर शिक्षा के लिए अपने परिवार को साथ दिल्ली ले गये थे ।प्रिया को पहाड़ से विशेष पर स्वाभाविक लगाव था। कई बार उसने अपने गाँव आने का प्रोग्राम बनाया , परन्तु किसी न किसी कारण वो रद्द हो जाते थे। इस बार प्रिया ने निश्चय किया कि वो अकेले ही अपने गाँव जाएगी।लगभग सात-आठ साल बाद वह अपने गाँव मुनस्यारी पहुँच गई थी।रातभर बारिश हो रही थी। मन में अनेक विचार आते-जाते रहते थे। जिस कारण काफी देर तक उसे नींद नहीं आ रही थी, सुबह होते-होते शायद उसकी आँख लग गई थी।
ताई जी की आवाज ने प्रिया की नींद खोल दी , वो उसे चाय पीने बुला रही थी। पहाड़ों में सुबह की चाय का जो आनंद बाहर खुले आँगन के अहाते पर बैठ कर पीने में आता है, वो कमरे में नहीं। प्रिया उठकर अहाते में बैठ गई थी। आज मौसम साफ था।सामने पंचचूली की धवल हिम श्रृंखला दैदीप्यमान थी। उसकी ओट से सूर्यदेव अपना विस्तार कर रहे थे। पेड़ो से छन कर कुछ किरणें प्रिया को स्पर्श करते हुए आँगन में पसर गईं थीं। ताई जी ने प्रिया को गर्म चाय का गिलास थमा दिया। चाय पीकर प्रिया अन्य कार्य में व्यस्त हो गई।दोपहर होते-होते फिर बारिश शुरू हो गयी और उसकी तीव्रता बढ़ती जा रही थी। रात्रि के करीब तीन बज रहे होंगे कि अचानक लोगो का शोरगुल व सीटियों की आवाज ने प्रिया को अनहोनी की आशंका के साथ भयभीत कर दिया।उसके ताऊ-ताई व उनके दोनों बच्चे सभी बाहर निकल आए। यह समझने में देर न लगी कि गाँव के करीब बहने वाले गधेरे में पानी का उफान सा आ गया है। भयानक गर्जना साफ सुनाई दे रही थी। गाँव के लोग एक-दूसरे को साहस देकर किसी प्रकार गाँव से दूर सुरक्षित स्थान में पहुँच कर राहत महसूस कर रहे थे। कुछ युवा गाँव के बच्चे-बूढ़ों को पीठ पर लाद कर सुरक्षित जगह पर पहुँचाने में सफल हुए। नतीजतन गाँव के लोगों की जानें बच गई।परन्तु मवेशियों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया।सुबह होते-होते अन्य पडोसी गाँव के लोग मदद करने पहुँच गये थे। उस समय का नजारा इतना वीभत्स था ,ऊपर से पहाड़ों का मिट्टी-पत्धर का मलवा लोगों के घरों में घुस गया था। कई मवेशी मलवे में दफन हो गये थे। कुछ अपनी नाकाम कोशिश कर रहे थे, मलवे से बाहर निकलने की। गाँव के लोगों से जितना सम्भव हुआ उतना उन्होंने किया और कुछ जानवरों को बचाया जा सका था। खेत-खलिहान भी मलवे से पट गए थे। जन समुदाय ने उस गाँव के लोगों के रहने,खाने की व्यवस्था जुटाई। प्रिया इस विद्रूप घटना से दहशत में आ गई।जैसे ही उसके पिता को जानकारी मिली वो तीसरे दिन मुनस्यारी पहुँच गये और प्रिया को अपने साथ वापस ले गये। प्रिया कई बार रात सपने में चिल्लाने-व रोने लगती।उसके पिता फोन द्वारा अपने घर व गाँव के लोगों से सम्पर्क बनाए हुए थे। यथा सम्भव राहत हेतु मदद भी कर रहे थे। सरकार द्वारा की जा रही मदद ना काफी थी। प्रिया ने अपनी स्मृतियों के आधार पर अपने गाँव की खूबसूरत तस्वीर अपने मस्तिष्क पटल पर बनाई थी। जिस की चर्चा व महिमा वह अपने साथियों के साथ अक्सर किया करती थी।इस बार उसने पहाड़ के दूसरे रूप को देखा और जिया था। कितना कठिन और कष्टप्रद है पहाड़ का जीवन, यह सोचते हुए दरकते पहाड़ो की तरह उसका हृदय भी असहनीय पीड़ा से दरक गया।

मंजु पांगती मन मुनस्यारी उत्तराखंड

3 Comments

  • Posted January 6, 2021 4:27 am
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    hirapathak

    बहुत सुन्दर तरीके से पहाड़ के दर्द को उकेरा गया है, धन्यवाद्

    • Posted January 16, 2021 5:02 am
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      manjupangti2@gmail.com

      हार्दिक आभार, एवं धन्यवाद।आदरणीय

  • Posted January 22, 2021 4:58 am
    by
    hirapathak

    पहाड़ के दर्द को बहुत सुन्दर रूप में उकेरा गया है। धन्यवाद्

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