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माँ के आँचल की बदरी ,गर्व पिता के दिल की।
खुशबू बन के महके, जलती लौ कंदिल की।
बलखाती नदियाँ सी वो, उर्वर भूमि को करती।
वह तो प्रीत की गगरी, खुशियों से घर भरती। ।
खुशियों की सौदागर वो, खाली झोली रहती।
लाज धरती दो कुलों की, पीड़ा खुद ही सहती।
दो घरों की लाडली पर, जब विपदा आ पड़ती।
सहे दर्द बेघर होने का, दुनियाँ से खुद लड़ती। ।
यह है सीरत बेटी की, हिम्मत की कमी नहीं।
दृढ संकल्प कर ले गर वो, नयनों में नमी नहीं।
दुष्कर्म जो करते उस पर, हैं कायर,अत्याचारी।
बेटी जीवन कविता है, अहम है भागीदारी। ।
मंजु पांगती मन मुनस्यारी उत्तराखंड
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hirapathak
बहुत-बहुत सुन्दर रचना, जय श्रीराम