भाव मेरे कब समझोगी, कब मन के भीतर उतरोगी?
सुनो प्रिये शब्दों से परे कब नयन की भाषा बरतोगी?
नयन से तन-मन बेधोगी, कब अधर से आमंत्रण दोगी
कहो कि कब इस हिरदय की आतुर याचना को समझोगी?
रति सम रूप की सीमा हो, चढ़ता मद धीमा-धीमा हो
मेरे हित बन सोमसुधा, कब कंठ में मेरे उतरोगी??
कब लोकलाज को त्यागोगी, कब अधर की प्यास बुझा दोगी
प्रिये कहो कब हर्षित हो तुम प्रेम का आलिंगन दोगी?
हैं याचक अनगिन मुझ जैसे, हे चन्द्र तुझे पाऊँ कैसे
तुम ही कह दो सजनी कैसे, मुंहमांगा तुम वर दोगी??
दिनेश चंद्र पाठक “बशर”।।