रूठकर तक़दीर ने इस तरह बदला लिया
हमने जो भी चाहा उसको ग़ैर का बना दिया।।
ले के उम्मीदों की झोली जिसकी चौखट पर गए
उसने हमको एक अनजाना पता बता दिया।।
अपना जज़्बा ये कि उस पे जान भी दे दें मग़र
उसकी ये बेगानगी कि, ना कभी मौका दिया।।
ज़ख्म जब भी मिलते हैं, बन जाती है कोई ग़ज़ल
उसने मेरा आज फिर शौक़ ए ग़ज़ल बढ़ा दिया।।
ऐ “बशर” उम्मीद का भी क्या कोई ईमान है?
डूबते दिल ने सहारा फिर से तिनकों का लिया।।
दिनेश चंद्र पाठक “बशर”।।