प्रायः सभी हिन्दू धर्मग्रंथों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि प्राचीन भारतीय संस्कृति में संगीतकला का अति महत्वपूर्ण स्थान रहा है। हिन्दू धर्मग्रंथों में जहाँ कहीं भी किसी हर्षपूर्ण घटना, अथवा मंगलकार्य संबंधी प्रसंग का वर्णन मिलता है, प्रायः वहाँ पर मधुर गीत-संगीत संबंधी आयोजन का भी वर्णन मिलता है। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि विभिन्न मांगलिक अवसरों पर गायन-वादन एक महत्त्वपूर्ण आयोजन हुआ करता था। हिन्दू धर्मग्रंथों में संगीत संबंधी वर्णन प्रायः दो प्रकार के अवसरों पर प्रमुखता से दिखाई देता है, एक तो ईश्वर प्राप्ति हेतु किये जाने वाले विभिन्न यज्ञादि अनुष्ठानों में होने वाले सामगान अथवा ईश्वर के गुणगान सम्बन्धी अवसरों पर होने वाला भक्ति संगीत तथा दूसरा लौकिक समारोहों अथवा विभिन्न हर्षपूर्ण घटनाओं में होने वाले संगीत संबंधी आयोजनों के रूप में। ईश्वर के गुणगान अथवा यज्ञों के अवसर पर सामवेद का गायन जिस पद्यति के अनुसार होता था वह मार्गी संगीत तथा जन-सामान्य के मनोरंजन हेतु किया जाने वाला गायन-वादन देसी संगीत के अंतर्गत आता था। प्राचीन भारत में संगीत ईश्वरभक्ति तथा मोक्ष प्राप्ति के सर्वश्रेष्ठ साधन के रूप में मान्य हो चुका था।
विष्णुपुराण में कहा गया है कि, “जिस प्रकार अग्नि से स्वर्णादि धातुओं के मल का सर्वथा नाश हो जाता है, उसी प्रकार भक्तिपूर्वक किया गया कीर्तन सभी प्रकार के पाठकों का नाश करने का उत्तम साधन है।”
इस प्रकार संगीतकला मानव-मन के विकारों को नष्ट कर उसे दैवीय गुणों की ओर प्रवृत्त करती है। हिन्दू धर्म में ईश्वर प्राप्ति हेतु योग, ज्ञान, यज्ञ-हवनादि जितने भी मार्ग प्रचलित हैं उनमें संगीतमय भक्ति का मार्ग विशेष फलदायक माना गया है। श्रीमद्देवीभागवत महापुराण में भगवान शिव की संगीतमयी सेवा का विशेष फल इस प्रकार वर्णित किया गया है-
यो नृत्यति महेशस्य सन्निधौ भक्तितत्परः
स: प्राप्य शाम्भवं लोकं मोदते सुचिरं मुने
गीतं-वाद्यं च यः कुर्यान्मनुजः शिवसन्निधौ
स: शम्भोरंतिकस्थायी भवेतत्प्रमथेश्वर: ।।
अर्थात – “जो व्यक्ति भगवान शंकर की सन्निधि में भक्तिपूर्वक नृत्य करता है, वह दिव्य शिवलोक को प्राप्त कर दीर्घकाल तक आनंदमग्न रहता है। जो शंकर की सन्निधि में गीत-वाद्य से सेवा करता है, वह भगवान शंकर के समीप रहकर उनके प्रमथों का स्वामी हो जाता है।
हिन्दू धर्मग्रंथों में संगीत संबंधी प्रसंग – क्योंकि भारतीय संस्कृति में संगीत ईश्वरप्राप्ति के सहज साधन के रूप में आरम्भ से ही मान्य रहा है, अतः यहाँ के धार्मिक साहित्य, चाहे वह वैदिक हो अथवा पौराणिक अथवा अन्य, संगीत संबंधी उदाहरण तथा घटनाएँ यत्र-तत्र मिलती रहती हैं। वैदिक ग्रंथों के अतिरिक्त शिव महापुराण, श्रीमद्भागवतमहापुराण, श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण, ब्रह्मपुराण तथा रामायण, महाभारत आदि में यत्र-तत्र संगीत संबंधी वाद्यों, घटनाओं, उत्सवों आदि का वर्णन मिलता है। विभिन्न उत्सवों अथवा हर्षपूर्ण घटनाओं पर गंधर्वों तथा अप्सराओं द्वारा गान तथा नृत्य करना, श्रीमद्भागवतमहापुराण के अन्तर्गत श्रीकृष्ण द्वारा वंशीवादन तथा गोपियों के सहयोग से रास नामक नृत्य का प्रतिस्थापन, तथा भगवान शंकर, देवी सरस्वती आदि विभिन्न देवी-देवताओं द्वारा गायन-वादन का वर्णन इनमें प्रमुख है। श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण में त्रिकूट पर्वत पर गंधर्वो के गायन-वादन का प्रभाव इस प्रकार वर्णित किया गया है-
सिद्धचारणगंधर्वविद्याधरमहोरगै:
किन्नरैरप्सोभिश्च क्रीड़द्भिजुष्टकंदर:
यत्र संगीतसन्नादैर्नदद्गुहममर्षया
अभिगर्जन्ति हरयः श्लाघिनः परशंकया।।
अर्थात – “उसकी (त्रिकूट पर्वत की) कंदराओं में सिद्ध, चारण, गंधर्व, विद्याधर, नाग, किन्नर और अप्सराएँ आदि विहार करने के लिये प्रायः बने ही रहते थे। जब उनके संगीत की ध्वनि चट्टानों से टकराकर गुफाओं में प्रतिध्वनित होने लगती थी, तब बड़े-बड़े गर्वीले सिंह उसे दूसरे सिंह की ध्वनि समझकर सह न पाते और अपनी गर्जना से उसे दबा देने के लिये और जोर से गरजने लगते।”
इसी प्रकार भगवान विष्णु के वामनावतार के समय देवी-देवताओं तथा गंधर्व आदि के द्वारा मनाए गए संगीतमय उत्सव का अत्यंत प्रभावपूर्ण वर्णन श्रीमद्भागवतमहापुराण में किया गया है। यथा –
शंखदुन्दुभयो नेदुर्मदंगपणवानका:
चित्रवादित्रतूर्याणाम् निर्घोषतुमुलाsभवत्
प्रीत्याश्चाप्सरसोsनृत्यगंधर्वप्रवरा जगु:
तुष्टुर्मुनयो देवा मनव: पितरोग्नय:।।
अर्थात – भगवान के वामनावतार के समय शंख, ढोल, मृदंग, डफ तथा नगाड़े बजने लगे। इन भाँति-भाँति के वाद्यों की तुमुल ध्वनि होने लगी। अप्सराएँ प्रसन्न होकर नाचने लगीं। श्रेष्ठ गंधर्व गाने लगे। मुनि, देवता, पित्र तथा अग्नि स्तुति करने लगे।
श्रीमद्भागवतमहापुराण के ही अंतर्गत श्रीहरि विष्णु के समक्ष उनके नारद, प्रह्लाद तथा अर्जुनादि भक्तों द्वारा मनोहारी कीर्तन करने का प्रसंग आता है –
दृष्ट्वा प्रसन्नम महदासने हरिं ते चक्रिरे कीर्तनमग्रतस्तदा
भवो भवान्या कमलासनस्तु तत्रागमत्कीर्तनदर्शनाय
प्रहलदास्तालधारी तरलगतिततया चोद्धव: काँस्यधारी
वीणाधारी सुरर्षि: स्वरकुशलतया रागकर्तार्जुनोsभूत्
इन्द्रोsवादीमृदंगं जयजयसुकरा: कीर्तन ते कुमारा
यत्राग्रे भाववक्ता सरसरचनया व्यासपुत्रोबभूव।।
अर्थात – “भगवान को प्रसन्न देखकर देवर्षि ने उन्हें एक विशाल सिंहासन पर बैठा दिया और सब लोग उनके सामने कीर्तन करने लगे। उस कीर्तन को देखने हेतु पार्वतीजी के सहित श्री महादेव जी भी आये। कीर्तन आरम्भ हुआ। प्रह्लाद जी चंचलगति (फुर्तीले) होने के कारण करताल बजाने लगे, लगे, उद्धव जी ने झांझें उठा ली, देवर्षि नारद वीणा की ध्वनि करने लगे, स्वर विज्ञान (गान विद्या) में कुशल होने के कारण अर्जुन राग अलापने लगे, इंद्र ने मृदंग बजाना प्रारंभ किया, सनकादि बीच-बीच में जयघोष करने लगे और इन सबके आगे शुकदेव जी तरह-तरह की अंगभंगी करके बताने लगे।”
ईश्वरीय गाथाओं के अतिरिक्त विभिन्न हर्षपूर्ण घटनाओं जैसे राजपुत्रों के जन्म, शत्रुओं पर विजय, अथवा विलासपूर्ण प्रसंगों में भी संगीत संबंधी आयोजन प्रमुखता से आते हैं। महाराज पृथु के जन्मोत्सव पर गंधर्वों तथा अप्सराओं द्वारा किये गए गायन एवं नृत्य का वर्णन इस प्रकार है –
प्रशंसित स्म तं विप्रा गंधर्वप्रवरा जगु:
मुमुचु: सुमनोधारा: सिद्धा: नृत्यन्ति स्व: स्त्रियः।।
अर्थात – उस समय ब्राह्मण लोग पृथु की स्तुति करने लगे, श्रेष्ठ गंधर्वों ने गुणगान किया, सिद्धों ने पुष्पवर्षा की, अप्सराएँ नृत्य करने लगीं।
इसी प्रकार भगवान विष्णु के नरसिंहावतार द्वारा दैत्यराज हिरण्यकशिपु का वध किये जाने पर समस्त देवसमुदाय द्वारा संगीतमय उत्सव मनाया गया। यथा –
तदा विमानावलिभिर्नभस्तलं दिदृक्षतां संकुलमास नाकिनाम्
सुरानका दुंदुभयोsथ जघ्निरे गंधर्वमुख्या ननृतुर्जुग: स्त्रियः।।
अर्थात – (हिरण्यकशिपु) का वध होने पर आकाश में विमानों से आए हुए भगवान के दर्शनार्थी देवताओं की भीड़ लग गई। देवताओं के ढोल और नगाड़े बजने लगे। गंधर्वराज गाने लगे, अप्सराएँ नाचने लगीं।
लौकिक संगीत के परिपेक्ष्य में श्रीकृष्ण द्वारा ब्रज की गोपियों के साथ मिलकर महारास नामक नृत्य का प्रवर्तन द्वापरयुगीन संगीत की एक महत्त्वपूर्ण घटना रहा। रास एक सामूहिक नृत्य था, जिसमें मण्डल बनाकर हाव-भाव के साथ नृत्य किया जाता था। यह नृत्य शृंगार रस से परिपूर्ण था। श्रीमद्भागवतपुराण में श्रीकृष्ण के साथ गोपियों द्वारा किये गए रास का अति सुंदर वर्णन किया गया है –
पादन्यासैर्भुजविधुतिभि: ससमितैर्भ्रूविलासै-
र्भज्यमध्यैश्चलकुचपटै: कुंडलैर्गण्डलोले:।।
अर्थात – गोपियों द्वारा श्रीकृष्ण के साथ किया गया कलापूर्ण नृत्य अत्यंत ही मनमोहक है। उनके द्वारा प्रकट किये जाने वाले हाव-भाव तथा उनका अंगसंचालन अपने आप में अतुलनीय है। नृत्य के समय गोपियाँ तरह-तरह से ठुमक-ठुमक कर अपने पाँव कभी आगे बढ़ाती हैं और कभी पीछे हटा लेती हैं। कभी गति के अनुसार धीरे-धीरे पैर रखती हैं तो कभी बड़े वेग से चाक की तरह घूम जाती हैं। कभी अपने हाथ उठा-उठाकर भाव बतातीं तो कभी विभिन्न प्रकार से उन्हें चमकातीं बड़े कलापूर्ण ढंग से मुस्कुराती तथा कभी भौंहें मटकाती हैं।
प्राचीन भारतीय समाज में संगीत का स्थान कितना ऊँचा था इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि “श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण” के अंतर्गत उक्त ग्रंथ की प्रशंसा का एक मुख्य कारण इसका सांगीतिक लक्षणों से परिपूर्ण होना बताया गया है।
पाठ्ये गेये च मधुरं प्रमाणैस्त्रिभिरंवितं
जातिभि: सप्तभिर्युक्तं तंत्रीलयसमन्वितं
रसै: शृंगारकरुणहसिरौद्रभयानकै:
विरादिभि: रसैर्युक्तं काव्यमैतद्गायताम्।।
अर्थात – यह महाकाव्य पढ़ने तथा गाने में मधुर, (द्रुत, मध्य और विलंबित) तीनों गतियों से अन्वित, षडजादि सातों स्वरों से युक्त, वीणा बजाकर स्वर और ताल के साथ गाने योग्य तथा शृंगार, करुण, हास्य, रौद्र, भयानक तथा वीर आदि सभी रसों से अनुप्राणित है। दोनों भाई (कुश और लव) उस महाकाव्य को पढ़कर उसका गान करने लगे।
उक्त वर्णन मात्र तत्कालीन समाज में संगीत के महत्त्व को ही रेखांकित नहीं करता, अपितु यह भी बताता है कि उस समय संगीत संबंधी शास्त्रीय ज्ञान अपने उत्कृष्टतम रूप में था। सातों स्वरों की खोज रामायणकाल तक सम्पूर्ण हो चुकी थी तथा किसी भी काव्य के लेखन में ध्यान रखा जाता था कि उसमें गेयता विद्यमान हो।
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राचीन भारतीय समाज में संगीत जीवन का एक अभिन्न अंग था। तात्कालिक युग के अधिकांश सम्मानित तथा पूजनीय पात्र संगीत के भी उच्चकोटि के विद्वान थे। गायन, वादन तथा नृत्य उनके जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग था, तभी तो संगीत की महत्ता को स्थापित करते हुए स्वयं भगवान ने यह उद्घोष किया –
नाहं वसामि वैकुण्ठे, योगिनां हृदये न च
मद्भक्ता: यत्र गायन्ति, तत्र तिष्ठामि नारद।।
दिनेश चंद्र पाठक
हिन्दू धर्मग्रंथों में संगीत पुस्तक से।।
2 Comments
डॉ कविता भट्ट 'शैलपुत्री'
बहुत अच्छा आलेख, हार्दिक बधाई।
Dinesh Chandra Pathak
बहुत बहुत धन्यवाद महोदया