अपना देस अपना परिवेश

खुश था मैं मगर एक दिन
मिल गयी मैकाले वाली
शिक्षा से उपजी हुई बुद्धि
उसने मुझे बरगला दिया
बरगला क्या पगला दिया
देखने लगा मैं बुराइयाँ
अपने धर्म अपने समाज में
अपने ग्रन्थ और पुराणों में
भगवान मेरे दुश्मन हो गये
मन्दिर मुझे नापसन्द हो गये
बुद्धिजीवियों की उल्टी बात
भाने लगी मन को इस कदर
कि माता-पिता पराये हो गये
और स्वार्थी मित्र बहुत हो गये
बात एक दिन की कुछ यों बनी
घर में मेरे  लग गयी आग
मित्र  मेरे  सब गये भाग
अपनी बुद्धि ही काम आयी
कुछ परिश्रम  स्वयं करके
घर की आग किसी तरह बुझाई
फिर जब बुझ गयी आग
जो कुछ था हो गया राख
सोचने लगा कैसे फूटे मेरे भाग
अपने सनातन और पुरातन, को
छोड़ क्यों भागा मैं इस तरह
परायी बुद्धि को क्यों लगाया गले
तब अपनी बुद्धि बोली सुन पगले
जो अपना है वही सच्चा है
मन्दिर में जाकर मथ्था टेक
कर स्मरण परमेश्वर का
और बुला अपने माता-पाता को
यही तो है  तेरा परम धर्म
अपना देस अपना परिवेश
इससे प्यारा कोई  नहीं
सेवा कर इनकी तन मन से
कर अपनी बुद्धि का प्रयोग
जब कर्म तेरे सुधरेंगें
तभी होगा तेरा उद्धार
तभी होगा तेरा उद्धार
         __हीराबल्लभ पाठक ‘निर्मल’

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