कंक्रीट के महल

कंक्रीट के महल
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मैं पापी हूँ अपना बोझ ढो रहा हूँ
अमृत समझ कर जहर पी रहा हूँ
जीवनदायी वृक्षों का कर पातन
“कंक्रीट”के महल में सो रहा हूँ ।
अरे! वातानुकूलित निष्क्रिय हुआ
क्या वायु का दबाव कम हुआ
हाँ भइ! वृक्ष नहीं हैं धरा पर तो
वायु कंक्रीट का महल बनायेगा ?
धरा रह जायेगा यहीं ठाठ-बाट
गर वृक्ष न होंगे इस पृथ्वी पर
जीवन भी कहाँ बचेगा रे मानव!
“प्रकृति” का कोप झेल रहा हूँ ।
बड़े-बूढ़े मेरे बहुत कहते थे
एक वृक्ष दस पुत्र समान है
मैं कहता यह क्या मज़ाक है
अब अपनी करनी भोग रहा हूँ ।
अब भी अगर सुधर जाऊं मैं
बन सकती है बात अभी भी
हर हालात में वृक्ष लगाऊं
‘निर्मल’ मन में सोच रहा हूँ ।
सोचना नहीं करना ही होगा
सोच विकसित यह करनी होगी
प्राणवायु के बिन ओ मानव !
यह सारा जग रो रहा होगा ?
यह सारा जग रो रहा होगा ??
_ हीराबल्लभ पाठक ‘निर्मल’

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