दर्पण के उसपार
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दर्पण! झूठ ना बोले, कहा किसीने
पर दिखाता वही, जो हम हैं चाहते।
देखना पड़ेगा, दर्पण के उस पार
जहाँ छुपी बैठी हैं, हमारी करतूतें ।
और जीवन भर का, लेखा – जोखा
तब अपने से ही, घिन आजायेगी।
और होगा अपराध बोध, नहीं क्या ?
कहां हैं वो वन, जो पूर्वजों ने लगाये
इस वसुन्धरा को, जिन्होंने सजाये।
आम, नीम, आंक, ढांक और पदम
बड़, पीपल, पिलिख, बेल , जामुन।
विकास के नाम पर, इन जीवनदायी
वृक्षों का क्यूं /किसने किया पातन?
अरे! हमें कहते हो, अंधविश्वासी
झांको भीतर, देखो दर्पण के उसपार।
तुम्हें नज़र आयेगी, वो घिनौनी सूरत
जिसने है किया, प्रकृति पर प्रहार ।
नग्न कर धरा को, हंसते हो बार बार
प्राणवायु के बिन, होगा नहीं उद्धार।
‘निर्मल’ करलो, अब भी अपना मन
सजाओ धरा को, लगाओ सघन वन।
…………..लगाओ सघन वन ।
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_ हीराबल्लभ पाठक ‘निर्मल’