नव विहान

नव विहान
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बीती विभावरि, हुआ नव विहान
गगन छाई लालिमा, अधरों पै मुस्कान ।
नव विहान के आंगन में,
खिलेंगे अनमोल अगणित पुष्प
लिये हाथों में, अपने- अपने अरमान ।
धूप सूरज की देती है जीवन,
होता हैं विकसित, कलियों का जीवन।
इसी जीवन को निशा विश्राम देती,
समझो न इसको, किसी से भी कम
सुख-दुख के मिश्रण से, चलता है जीवन।
रात और दिन, फिर दिन और रात
यही क्रम सदियों से, चलता रहा है
निराशा नहीं भाई, आशा है जीवन ।
अगर दुःख न हो तो, करे कौन अनुभव
कि सुख भी किसी काम, आता ही होगा
‘निर्मल’ रहो शान्त रहकर ही मानव,
जी जायेगा अपने हिस्से का जीवन ।
…………..अपने हिस्से का जीवन ।
                  _ हीराबल्लभ पाठक ‘निर्मल’

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