प्रस्तावना – हिन्दू धर्मग्रंथों में संगीत।

भारतभूमि प्रारंभिक काल से ही कला-संस्कृत, विज्ञान तथा धार्मिक विषयक अन्वेषण का केंद्र रही है। हज़ारों वर्षों पूर्व जब विश्व की अधिकांश सभ्यताएँ अज्ञान के घोर अंधकार में आकण्ठ डूबी हुई थीं तब यहां के ऋषि-मुनिगण पवित्र यज्ञों में आहूतियाँ देते हुए “सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः” की मंगलकामना सम्पूर्ण विश्व के लिये कर रहे थे। जब अनेक देशों के तथाकथित सभ्यजन पशुओं का कच्चा मांस कहकर अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे, उस समय यही भारतभूमि थी जहाँ से “अहिंसा परमो धर्म:” का उद्घोष सारे विश्व में गूँज उठा। यही वह पुण्य भूमि है जिसने सम्पूर्ण विश्व को आध्यात्म के क्षेत्र में वेदों का साक्षात्कार कराया, नाट्य एवं संगीत का सर्वप्रथम ग्रंथ इसी धरती पर लिखा गया। यही वह देश है जिसे विश्वगुरु मानकर समस्त विश्व ने प्रणाम किया।
भारतीय समाज की यह विशेषता रही है कि कला-संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान तथा आध्यात्मिक क्षेत्र में यह सदैव अग्रणी रहा है। इसका एक मुख्य कारण है सृष्टि तथा इसके निर्माता को जानने की सतत जिज्ञासा, जिसके फलस्वरूप हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने जीवन को उसकीसमग्रता में जानने का प्रयास किया और नित नए यज्ञीय अनुसंधानों के फलस्वरूप विभिन्न कलाओं तथा ज्ञान-विज्ञान के द्वार सम्पूर्ण मानव जाति के लिए खुलते चले गए। भारतीय समाज की समस्त सामाजिक तथा सांस्कृतिक उन्नति का भेद यहां की धार्मिक तथा आध्यात्मिक उन्नति के साथ जुड़ा है। धर्म भारतीय जीवन पद्यति का मूल प्रमाण रहा है, अतः मानव जीवन का हर कर्म कहीं न कहीं जाकर विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों अथवा मान्यताओं से ही ऊर्जा प्राप्त करता है। बात चाहे गणित की हो या विज्ञान की, योग तथा आयुर्वेद हो अथवा काव्य, शिल्प, चित्रकला अथवा ललित कलाओं में सर्वश्रेष्ठ मानी जाने वाली संगीत कला की, हर कला अथवा विद्या का सिर कहीं न कहीं जाकर हिन्दू धर्मग्रंथों से जाकर मिलता है। वेद, पुराण, रामायण, महाभारत जैसे अनगिनत धार्मिक ग्रंथों ने सदैव हिन्दू संस्कृति के गौरव को बढ़ाया है। यद्यपि इन सभी ग्रंथो का प्रधान विषय परम सत्ता के स्वरूप की खोज, उसके प्रति जिज्ञासा का भाव तथा उसकी महिमा का गान रहा है, किन्तु इसी के साथ सामाजिक जीवन में मनुष्य के कर्तव्याकर्तव्य, मानवीय स्वभाव तथा विभिन्न प्रकार के ज्ञान-विज्ञान तथा कलात्मक विषयों पर भी कई स्थानों पर गहन विचारात्मक चर्चा तथा आख्यान विभिन्न हिन्दू ग्रंथों में प्रचुरता से पाये जाते हैं। यही नहीं ये समस्त ग्रंथ एक प्रकार से तात्कालिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक इतिहास को भी जानने का एक माध्यम रहे हैं। जहाँ तक बात संगीत की है तो हिन्दू जीवन शैली में प्रारंभ से ही संगीत जीवन का एक मुख्य अंग रहा है। शिशु के जन्म पर होने वाले मंगलगान से लेकर मानव की मृत्यु पर होने वाले गीतापाठ अथवा हरिभजन तक समस्त हिन्दू संस्कारों में संगीत अनिवार्य रूप से जुड़ा है। प्रायः सभी हिन्दू धर्मग्रंथों में विभिन्न अवसरों पर उत्कृष्ट संगीतज्ञों द्वारा किये गए गायन-वादन का अत्यंत सरस एवं मार्मिक वर्णन ग्रन्थकारों द्वारा मुक्तभाव से किया गया है। विभिन्न ग्रथकारों द्वारा किये गए ये वर्णन भारतीय समाज में संगीत के स्वरूप, उसमें प्रयोग किये जाने वाले वाद्यों तथा गायन अथवा वादन शैलयों के बारे में भी महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं। वैदिक काल में यज्ञों के साथ जैसे-जैसे सामगायन की महत्ता बढ़ने लगी वैसे-वैसे भारतीय संगीत भी विकसित होता गया। प्रारम्भ में तीन स्वरों में होने वाला सामगान सात स्वरों तक की यात्रा पूर्ण कर एक भव्य रूप में सामने आया। वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक भारतीय संगीत ने एक लंबी यात्रा तय की है। इस लंबी अवधि के अनन्तर इसमें कई नई विधाएँ तथा नियमादि जुड़ते गए तथा कई पुराने नियम व विधाएँ शायद समय तथा उसकी आवश्यकताओं से तारतम्य स्थापित न कर पाने के कारण लुप्तप्राय हो गए। इनमें कई विधाएँ ऐसी हैं जिनका हमें आज नाम तो सुनाई देता है किंतु उनके स्वरूप, व्यवहार तथा प्रयोग विधि के बारे में हम कुछ नहीं जानते। उदाहरण के लिए मार्गी संगीत का नाम लिया जा सकता है। शायद इसका मुख्य कारण यह है कि प्राचीन काल में भारत में स्वतंत्र इतिहास लेखन की कोई परंपरा नहीं रही। प्राचीन भारत के बारे में हम जो कुछ भी जानते हैं उसका मुख्य साधन वेद, पुराण तथा उपनिषद ही हैं। प्रायः अधिकांश धर्मग्रंथो में भारतवर्ष में समय-समय पर विभिन्न वंशों की उत्पत्ति तथा उनके प्रभाव का भी वर्णन किया गया है। यद्यपि अधिकांश धार्मिक ग्रंथों में विभिन्न घटनाओं एवं पात्रों का वर्णन इतने चमत्कारिक रूप में किया गया है कि वे नितान्त काल्पनिक ही प्रतीत होते हैं किंतु इसके अतिरिक्त अन्य कोई लिखित साधन उपलब्ध न होने के कारण हमारे पास यही विकल्प बचता है कि नीर-क्षीर विवेकी बुद्धि का प्रयोग करते हुए इनमें से वास्तविक तथ्यों की पड़ताल कर तात्कालिक, वास्तविक स्थितियों को जानने का प्रयास करें।
[ ] हिन्दू धर्मग्रंथों में कई स्थानों पर संगीतमय उत्सवों तथा पात्रों का वर्णन आता है। इनमें से कई पात्र तो ऐसे हैं जिन्होंने संगीत में कई युगान्तकारी सकारात्मक परिवर्तन किए तथा एक प्रकार से तात्कालिक संगीत के पर्याय ही बन गए। उदाहरण के लिए श्रीमद्भागवतमहापुरण के मुख्य पात्र श्रीकृष्ण ने वंशीवादन में ऐसी दक्षता प्राप्त की कि उनका नाम ही मुरलीधर पड़ गया। आज भी विभिन्न मंदिरों में इनका यही स्वरूप विद्यमान है। इसी प्रकार नाट्यशास्त्र के जनक ब्रह्मा, जगत में ताण्डव नृत्य के प्रवर्तक भगवान शिव तथा संगीत की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती भी ऐसे ही संगीत मर्मज्ञ पात्र हैं जिनका वर्णन सभी धर्मग्रंथों में अत्यंत भक्ति एवं श्रद्धा के साथ किया गया है। प्रस्तुत शोध प्रबन्ध “हिन्दू धर्मग्रंथों में संगीत” विभिन्न हिन्दू धर्मग्रंथों के आधार पर भारतीय संगीत की उत्पत्ति तथा उसके क्रमिक विकास के बारे में जानने का एक विनम्र प्रयास है। जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि धार्मिक ग्रंथों में अधिकांश पात्रों एवं घटनाओं का वर्णन अत्यन्त ही चमत्कारिक रूप से लिया गया है अतः विभिन्न तथ्यों एवं विचारों की पुष्टि हेतु संगीत से सम्बन्धित अन्य भारतीय ग्रंथों के उद्धरण भी आवश्यकतानुसार लिए गए हैं। क्योंकि हिन्दू धार्मिक ग्रंथों का क्षेत्र अपने-आप में अत्यंत विस्तृत है अतः हो सकता है कि इसमें कुछ तथ्य अथवा पहलू छूट जायें फिर भी इस आशा के साथ कि यह पुस्तक “हिन्दू धर्मग्रंथों में संगीत”, आगामी शोधार्थियों में एक रुचि अवश्य उत्पन्न करेगी, आप सभी गुणिजनों के सम्मुख प्रस्तुत है।

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