बहार आई थी चार दिन के लिये
और आकर चली भी गयी
देखता ही रह गया मैं
हाय! उजड़े दयार को।
मन तो बहुत था रोकूँ उसे
पर जाना था वो चली ही गयी
बातें भी दिल की हो न सकीं
अब सुनाता हूँ मैं खुद ही को।
हाय री! किस्मत दगा दे गयी
रोने की अपनी आदत न थी
आँसू का कतरा आया तो सही
बन्द कर लिया पलकों को।
ऐ बहार! आना फिर कभी
तब निहारूंगा तुझे जी भर
“निर्मल” गले लगा लूँगा तुझे
फिर से यूँ कभी न जाने को।
……….. कभी न जाने को।।
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(हीराबल्लभ पाठक “निर्मल”
स्वर साधना संगीत विद्यालय
लखनपुर रामनगर , नैनीताल)