बिन जिये ऐसे भी
कुछ लम्हे होते हैं
जो हमारी ज़िंदगी में
शामिल नहीं होते हैं
छोड़ देते हैं जिनको
हम अक्सर कुछ सोचकर
दिल ही दिल में मग़र
ताउम्र रोते हैं।।
डर कभी समाज का
अनजानी कोई झिझक
अलिखित नियम कोई
कितने बंधन होते हैं।।
बोझ कोई ज़िम्मेदारी का
किसी को दिया गया वचन
ख़ुद के ही अरमानों के हम
ख़ुद ही क़ातिल होते हैं।।
आशा न ही कोई दिलासा
न ही साझेदार कोई
उन लम्हों की लाश स्वयं ही
उम्रभर हम ढोते हैं।।
दिनेश चंद्र पाठक “बशर”