भाव हो कर्तव्य का, तुम प्रेम का संचार हो
राम जननायक, नरोत्तम, अखिल जगदाधार हो।।
दीनजन के सहज सम्बल, आर्तजन की पुकार हो
तृप्ति हो उपकार की, करुणा के तुम भण्डार हो।।
सीमा मर्यादा की हो, गुण-रूप के आगार हो
ध्वनि सनातन ॐ की तुम, सृष्टि का विस्तार हो।।
मूर्त रूप विनम्रता के, त्याग का संस्कार हो
न्याय की अवधारणा हो, नीति का तुम सार हो ।।
भक्तरंजन, शत्रुमर्दन, धर्मधनु टंकार हो
शत्रु संहारक महाकाली के खड्ग की धार हो।।
आदिकवि की प्रेरणा हो, सुमति का सत्कार हो
विश्व को अपना दिया वर, राम तुम साकार हो।।
पापनाशक, धर्मरक्षक, सहज सौम्य, उदार हो
भाव से फलीभूत होते, ऐसे तुम करतार हो।।
राष्ट्रगौरव, राष्ट्रप्रेरक, राष्ट्र के आधार हो
राष्ट्र के तुम प्राण रघुवर, राष्ट्र के शृंगार हो।।
दिनेश चंद्र पाठक “बशर”
“कुछ शब्द ठिठके से” पुस्तक से उद्धृत