मन मष्तिष्क की अत्यंत सूक्ष्म अभिव्यक्ति है।बस्तुतः मष्तिष्क की रचना धर्मिता ही मन है।जिसको केंद्रीय स्नायुतन्त्र कहते हैं।हम सबका केंद्रीय स्नायुतन्त्र इतना संवेदनशील होता है कि हमारी दैनिक जीवन की सारी कार्यविधियों का संचालक मन होता है।यहां यह ध्यातव्य हो कि मष्तिष्क एक स्थूल परिधि है जिसकी भित्ति पर मन गतिशील होता है।बस्तुतः जिस शरीर के हम वाहक होते हैं उस शरीर की मूल आवश्यकताओं में मूलरूप से आहार,निद्रा,भय,मैथुन है।आहार के विना शारीरिक क्रिया की गतिशलता असम्भव है।अतः शरीर को आप अन्न से जोड़ सकते है क्योंकि अन्न की अनुपस्थिति में शारीरिक ऊर्जा का अभाव होगा।लेकिन मन भौतिक शरीर का वह सूक्ष्म शरीर है जो हमें क्रियाशील ही नही बनाता वह अत्यंत गतिशील भी होता है।मन की गतिशलता में मष्तिष्क वह केंद्रीय तत्व है जिसके अस्तित्व में होने के कारण ही मन है।मन का अत्यंत सूक्ष्म शरीर होता है।जिसमें कल्पना,सर्जना,वह केंद्रीकृत संवेदना है,जिसे आप स्पंदन भी कह सकते हैं।मन स्पंदित,तरंगित होता रहा है।यह लागभग आपके-हमारे शरीर का अत्यंत सूक्ष्म भाग होता है जिससे आपमें स्मरण शक्ति होती है।स्मरण शक्ति व वाह्य जगत के आपसी अन्तःक्रिया के परिणाम स्वरूप मन निष्कर्ष को प्राप्त होता है।मन पर अतीत व वर्तमान की स्मृति की प्रत्यक्ष या परोक्ष अन्तःक्रिया से ही प्राप्त विचार निष्कर्ष को प्राप्त होते हैं।मष्तिष्क की भित्ति पर मन की निष्कर्णात्मक निष्कर्ष एवम अभिकल्पनाओं के आधार पर ही आप किसी भौतिक वस्तु को जिस रूप या तरह से देख रहे होते हैं उसमें अतीत के चित्र या विचार जो पूर्व में आपके स्मृति के अंग रह चुके होते है,मन उन्ही विचारों व अभिव्यक्तियों का सममुच्चय होता है,जिसका निस्तारण समय-समय पर विचारो के रूप में वह आपके विचारों का स्फोट करता रहता है।मन द्वारा संकलित की गई जो स्मरण शक्ति है उसके ही आधार पर आप कोई भित्ति चित्र बना सकते है या लिख सकते है या बोल सकते है या आप किसी कार्य की युक्तिसंगता की परख करते हैं।
अतः आप यह कह सकते है कि स्मरण और संकलित विचार या विशेष दृष्टि जो आपके मनोनुकूल होती है आप अभिव्यक्त करते है।इसी तरह से आप झूठ बोलते है,अच्छे कार्य भी करते है।क्योंकि यह सब सामाजिक,पारिवेशिक अन्तःक्रिया के परिणाम होते है।आपका शरीर इसका संवाहक होता है।इस तरह मन मस्तिष्क का संवाहक होता है,जो आपके-हमारे अस्तित्व व परिवेशकीय संरचनाओं से अछूता नही हो पाता।इसकी अधिकता में आपके पूर्वाग्रही होने के खतरे हो सकते है।क्योंकि मनुष्य की कल्पना शक्ति का प्रकार अतिभिन्न है।जैसे कोपरनिकस ने जब यह कहा होगा कि पृथ्वी गोल है तब उसने पृथ्वी का माप नही लिया होगा पर दूर क्षितिज के अंडाकार होते दृश्य को देखकर किया होगा वह कोपरनिकस अनुमानित सत्य था।मन द्वारा अनुमानों के सटीक विश्लेषण से हम सबने भी इस कथन को मान लिया कि पृथ्वी गोल है,बाद में कोपरनिकस की संकल्पनाओं के आधार पर यह वैज्ञानिकों ने माना की बस्तुतः पृथ्वी गोल है।इस तरह मन मस्तिष्क की संकल्पनाओं का प्रतिबिंब है।
मन का शरीर भी आपके व हमारे शरीर का वह आभ्यांतरिक भाग है जो स्थूल रूप से वह अनभिव्यक्त होता है।जैसा रूप व शारीरिक संगठन होता है उसी के अनुसार आपका सूक्ष्म शरीर(मन) होता है।मन इन्द्रियानुभव का वह आकार होता है जिसमे रूप,रस,स्पर्श,घ्राण,एवम प्रत्यक्ष व परोक्ष की सकारात्मक-नकारातनक कल्पना करता रहता है।मन ही एकमात्र वह कारक शक्ति है जिससे जगत का व्यापार चलता है।निर्भर यह करता है आपका जो प्रत्यक्ष अनुभव है वह आप किस तरह से उसकी अनुभूति करते हैं?बस्तुओं की ग्रहणशीलता व बोध के भिन्न-भिन्न आयामों में आपने जो स्मृति का भाग बना रखा है,जिसे आप करते नही वह स्वतःस्फूर्त रूप से होता चलता है यह मन की चक्रीय प्रक्रिया है जिसमें अतीत की स्मृतियां होती है।अतीत की स्मृतियां ऊर्जान्वित है या नही?यह मन की निर्णायक शक्ति पर निर्भर करता है।अतः आप यह मानते हुए चलें कि मन की दृष्टि वैभिन्नता लिए होता है दृष्टि विभिन्नता का अस्तित्व आपके संवेदनात्मक प्रवृत्ति की प्रकृति पर आधारित होता है।संवेदनात्मक प्रकृति में शरीर के जितने अवशोषित करने वाले समुच्चय होते है उनका आपके मन पर गहरा असर होता है। यह इसलिए होता है क्योंकि आपकी घ्राण शक्ति, स्पर्श की संवेदना के घनत्व की मात्रा का प्रतिशत कितना होता है?इन्द्रिय शक्ति में मात्रात्मक रूप से अतीत के अनुभव या व्यवहारिक अनुभव में कौन कितना प्रभावी होता है?इसकी निर्भरता आपकी दृष्टि होती है।
दृष्टिबोध का होना दृष्टि का होना है,जिसकी आवृत्ति में पूरकता है।अगर हम सब समग्रता से सब देख रहे होते है तो दृष्टि की विभिन्नता में भी एक निष्कर्ष को प्राप्त होगें नही तो दृष्टि की विभिन्नता आती जायेगी।क्योंकि हमारे-आपके द्वारा जो स्पर्श किया जा रहा है या जो देखा जा रहा है या जिसका अस्वादन किया जा रहा है सबका बोध अलग व्यक्तियों में अलग-अलग होगा।इस अलगाव में भी मन एक सममुच्चय है।जो सबका एक जैसा है।इसीलिए जो सममुच्चय के रूप में जो होगा वह सममुच्चय में ही चीजों को देखेगा।यही से हम-आप मतों की स्थापना करते है जिसने मतांतर भी समाहित होते हैं।
हर व्यक्ति का जिस तरह शरीर अलग-अलग होता है।उसी प्रकार मन की स्थिति भी अलग-अलग होती है।अतः बोध की एकता मन की एकता है।बोध की एकता के अभाव में आपका-हमारा बोध अपूर्ण होता है।मन एक पूर्ण इकाई है।इस तरह किसी का मन न तो रिक्त होता है ना ही उसे रिक्त किया ही जा सकता है।इस तरह हम सबका मन एक है।जो एक होगा वह पूर्णत्व लिए होगा।अतः पूर्ण से पूर्ण को विभक्त नही किया जा सकता इसीलिए मन की पूर्णता को शुद्ध,परिमार्जित,अखण्ड कहा गया है।मन की अखंडता जो हमारी आत्मा का वाह्य आवरण होता है जिसे ईश्वर कहा गया,ईश्वर का अस्तित्व भी उसके मन के अनुषांगिक स्वर से है,जिसमें अनुषांगिक रूप से स्वर है जिसकी मृत्यु नही होती एवम जो स्वयम के आरोह-अवरोह हों वे ईश्वर हैं।
इस तरह आत्मा की अन्तरवृत्तियो की प्रतिछाया में जो घूर्णन को प्राप्त करता अनवरत्व को प्राप्त हो वह ईश्वर है।ईश्वर और कोई और नही आप-हम ही हैं जो अपनी अंतरभुक्ति में स्वर के आरोह-अवरोह को लब्ध है।इस तरह जो अपनी अन्तरभुक्तियों में सातत्य के साथ गतिशील है वह ईश्वर है।ईश्वर पूर्ण है उसका विभाजन नही किया जा सकता।अगर पूर्ण से पूर्ण को निकाला जाएगा तो वह पूर्ण ही बचेगा।इस तरह मन का जो दर(स्थान) है वह मन का मन्दिर है या वह दर जहां मन है,या आप यूँ कह सकते है कि जिन-जिन समुच्चयों में मन है और जहां-जहां मन का दर है वह मन्दिर है।इसलिए मन एक मंदिर है या शरीर एक मंदिर है।जहां हमारा मन दर पाना चाहता है वह मन का मंदिर है।दर का अर्थ स्थान होता है।इस प्रकार जिस दर में मन है वह मंदिर है या शरीर ही वह दर(स्थान)है जहां मन मंदिर है।अतः हम सबका शरीर ही मंदिर है।इसलिये मन को नित्य आचमन कराएं।मन जितना ही निर्मल,परिष्कृत एवम परिमार्जित रहेगा आपके ईश्वर आपके शरीर को लब्ध होते रहेंगे।
श्री रवि शंकर पाण्डेय
अधिवक्ता उच्च न्यायालय, लखनऊ।।
2 Comments
Mithilesh Pandey
बहुत सुन्दर लेख
Dinesh Chandra Pathak
हार्दिक आभार