हिन्दू धर्मग्रंथों के अनुसार संगीत की उत्पत्ति

संगीत के प्रति मानव सर्वप्रथम कब तथा किस प्रकार आकर्षित हुआ, स्पष्ट रूप से कहना अत्यंत विवादास्पद होगा। किन्तु संभवतः जब मानव किसी अपार प्रसन्नता को पाकर अकस्मात् उछलने-कूदने लगा होगा, शायद वही उसका प्रारम्भिक नृत्य रहा होगा। जब वह कोयल या अन्य पक्षियों की आवाज़ की नकल कर रहा होगा, वही उसका पहला गायन रहा होगा। जब उसने पहली बार दो पत्थरों अथवा अन्य ठोस वस्तुओं को आपस में टकराकर ध्वनि उत्पन्न की होगी, वही उसका प्रथम वाद्य रहा होगा। कालांतर में मनुष्य जैसे-जैसे बौद्धिक तथा मानसिक रूप से परिपक्व होता गया, वह अपने भीतर छिपी कलाओं का उत्तरोत्तर विकास करने लगा। जिसके परिणाम स्वरूप आज हमारे पास विभिन्न कलाओं एवं विधाओं का विशाल तथा परिष्कृत भण्डार है। ये कला अथवा विधाएँ आज जिस परिष्कृत तथा भव्य रूप में हमें दिखाई देती हैं वह हमारे पूर्वजों द्वारा किये गए सतत् अनुसंधान तथा तप का प्रतिफल है।
भारत एक धर्मप्रधान देश है। यहाँ जनसामान्य से जुड़े सभी सामाजिक कर्म, व्यवहार तथा लोकाचार संबंधी नियम किसी न किसी प्रकार धार्मिक मान्यताओं के साथ गुँथे हुए हैं। कलात्मक विषय भी इसका अपवाद नहीं हैं। उदाहरण के लिये शिल्पकला के साथ भगवान विश्वकर्मा, काव्य एवं संगीत के साथ देवी सरस्वती तथा नृत्य के साथ भगवान शिव तथा माता पार्वती का संबंध सर्वविदित ही है। हिन्दू धर्म में संगीतकला ईश्वरभक्ति के सर्वश्रेष्ठ माध्यम के रूप में मान्य रही है। यथा –
विष्णुनामानि पुण्यानि सुस्वरैन्वितानि चेत् ।
भवति सामतुल्यानि कीर्तिनानि मनीषिभिः।।
अर्थात् – विष्णु भगवान के पवित्र नामों का यदि सुंदर स्वरों सहित विद्वानों द्वारा गायन किया जाए तो वे भी सामवेद की ऋचाओं के समान ही फलदायक होते हैं।
संगीत की उत्पत्ति के संबंध में विद्वानों में मतभेद दिखाई देता है। जहाँ एक ओर कुछ विद्वान इसे मनुष्य के क्रमिक विकास के रूप में देखते हैं, वहीं दूसरी ओर कुछ विद्वान इसे मानव के भीतर उत्पन्न हुई स्वतःस्फूर्त कला के रूप में मान्यता देते हैं। हमारी धार्मिक मान्यताएँ संगीत की उत्पत्ति को विभिन्न देवी-देवताओं से जोड़कर देखती हैं। माँ सरस्वती को विद्या और कला की अधिष्ठात्री देवी कहा गया है। समस्त भारतीय साहित्य, चाहे वह पौराणिक हो या आधुनिक, वीणावादिनी के रूप में ही उनकी कल्पना करता है। इसी प्रकार भगवान शिव के साथ डमरू, भगवान कृष्ण के साथ वंशी जैसे सांगीतिक वाद्य प्रतीकात्मक रूप से जुड़े ही हैं।
भारतीय जनमानस में संगीत की उत्पत्ति वेदगर्भ ब्रह्मा, शिव तथा सरस्वती आदि दिव्य विभूतियों से मानी गई है। अपने शोधग्रंथ “भारतीय संगीत का इतिहास” में ठाकुर जयदेव सिंह भी उक्त मत की पुष्टि करते हुए लिखते हैं, “शिव, ब्रह्मा, सरस्वती, गंधर्व और किन्नर को जो हम अपनी संगीतकला के आदि प्रेरक मानते चले आए हैं, इसके मूल में यही भावना है कि संगीतकला दैवी प्रेरणा से ही प्रादुर्भूत हुई है। यद्यपि संगीत मानव के लिये स्वाभाविक है तथापि कला के रूप में यह दिव्य प्रेरणा से ही आया होगा। संगीत वह सुंदर, सुरभि, सरस पद्म है जो बिना स्वर्ग के प्राणदायक शीतल ओसकण के खिलता ही नहीं। हमारे ऋषियों और आचार्यों का यह विश्वास है कि शंकर के डमरू से वर्ण और स्वर दोनों उत्पन्न हुए। शंकर की शक्ति पार्वती, शिवा, दुर्गा भी संगीत की प्रेरक मानी गई हैं।”
वैदिक मान्यता के अनुसार समस्त विद्या एवं कलाओं का उद्गम स्थान वेद ही हैं तथा वेद परब्रह्म पुरूष के निःश्वासरूप हैं, अतः संगीत का उत्पत्ति स्थान भी स्वयं ब्रह्म ही हुआ। परब्रह्म परमात्मा से निःश्वासरूप में शब्दब्रह्म ॐ की उत्पत्ति हुई तथा इसी ॐ में समस्त सृष्टि तथा वैदिक साहित्य निहित है। चारों वेदों का मूल यह ॐकार ही है। क्योंकि संगीत का संबंध सामवेद से माना गया है तथा वेद अपौरुषेय हैं अतः संगीत को भी अपौरुषेय तथा ब्रह्म से उत्पन्न माना गया है।
एक मान्यतानुसार संगीत की उत्पत्ति वेदों के रचयिता ब्रह्मा जी के द्वारा की गई। ब्रह्माजी ने अपने चारों मुख से चार वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद) की उत्पत्ति की। विद्वानों के अनुसार संगीतशास्त्र भी ज्ञान की एक शाखा है जिसका संबंध सामवेद से है। सामवेद के समस्त पद गेय हैं, अतः सामवेद से ही संगीत की उत्पत्ति मानी जाती है। “संगीत दर्पण” के रचनाकार दामोदर पण्डित ने भी ब्रह्मा जी के द्वारा ही संगीत की उत्पत्ति मानी है। यथा-
द्रुहिणेत् यद् अन्विष्टम प्रयुक्त भरतेन च
महादेवस्य पुरतस्तन्मार्गाख्य विमुक्तदम्।।
अर्थात् – द्रुहिण (ब्रह्मा) ने जिस संगीत को शोधकर निकाला, भरत ने महादेव के सामने जिसका प्रयोग किया तथा जो मुक्तिदायक है, वह मार्गी संगीत है।
ठाकुर जयदेव सिंह भी उक्त मत से पूर्णतया सहमत दिखाई देते हैं। उनके अनुसार, “ब्रह्मा शब्द बृह अथवा बृंह् धातु से बना है। इस धातु का अर्थ है आत्मविस्तार, ध्वनि होना, ध्वनि के द्वारा हृदय के भावों को अभिव्यक्त करना। ब्रह्मा के मूल में ही नाद है, अतः इन्हें संगीत का प्रेरक मानना सर्वथा उपयुक्त है।”
इस प्रकार ब्रह्मा ही संगीत के मुख्य उत्पत्तिकारक माने जाते हैं। ब्रह्मा ने यह कला शिव को, तथा शिव ने सरस्वती को प्रदान की। सरस्वती द्वारा नारद को संगीतकला का ज्ञान प्रदान किया गया तथा नारद ने स्वर्ग के गंधर्व, किन्नर तथा अप्सराओं को संगीत की शिक्षा प्रदान की। विद्वानों के अनुसार ब्रह्मा ने ब्रह्मवीणा, एकतंत्री वीणा और मृदंग का तथा देवी सरस्वती ने सरस्वती वीणा का निर्माण किया। इसके अतिरिक्त ब्रह्मा के मानस पुत्र नारद एक उच्चकोटि के संगीताचार्य रहे। संगीत संबंधी इनके मतों का संकलन नारदीय शिक्षा के नाम से प्रसिद्ध है।
एक अन्य मतानुसार भगवान शिव ने अपने पाँच मुखों (पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण तथा आकाशोन्मुख) से क्रमशः भैरव, हिंडोल, मेघ, दीपक और श्री राग उत्पन्न किये तथा शिवप्रिया देवी पार्वती के द्वारा कौशिक नामक छठा राग उत्पन्न किया गया। जगत में ताण्डव तथा लास्य नामक नृत्यों का प्रवर्तन भी इन्हीं दोनों के द्वारा माना जाता है। इसके अतिरिक्त देवी सरस्वती तो संगीत की अधिष्ठात्री देवी के रूप में प्रसिद्ध हैं ही। सरस्वती शब्द की व्याख्या करते हुए ठाकुर जयदेव सिंह बताते हैं कि – “सरस+वती शब्द सृ धातु से बना है, जिसका अर्थ है ‘सरकना’ या गतिशील होना। सरस्वती ब्रह्मा की वह शक्ति है जिसके द्वारा ब्रह्मा में गतिशीलता आती है। इसी शक्ति से ही ब्रह्मा विश्व का निर्माण करते हैं। इस शक्ति का पर्याय है शब्द या नाद। अतः सरस्वती काव्य, संगीत इत्यादि ललित कलाओं की जननी है।”
भारतीय शास्त्रीय संगीत में राग भैरव, राग सरस्वती जैसे कई राग ऐसे हैं जिनका नामकरण विभिन्न हिन्दू देवी-देवताओं के नाम पर किया गया है। यही बात तालों तथा वाद्य यंत्रों के संदर्भ में भी कही जा सकती है जैसे – विष्णु ताल, गणेश ताल, ब्रह्म ताल, तथा सरस्वती वीणा, रुद्रवीणा, ऐन्द्र वीणा, नारदीय वीणा आदि।
विभिन्न देवी-देवताओं के नाम पर तालों का नामकरण हिन्दू जनमानस में इनके प्रति अगाध श्रद्धा को दर्शाता है। भले ही संगीत की उत्पत्ति पर कोई निश्चित मत न हो किन्तु यह निर्विवाद सत्य है कि ब्रह्मा तथा शिव का भारतीय संगीत पर विशेष प्रभाव रहा है। इसके अतिरिक्त देवी सरस्वती, श्रीहरि विष्णु, शिवपुत्र गणेश तथा इन्द्रादि प्रमुख देवताओं का उल्लेख प्रायः संगीत संबंधी उद्धरणों में मिलता ही रहता है। ये सभी विभूतियाँ तत्कालीन समाज में विशेष श्रद्धा के पात्र रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इन सभी ने अपने युग में संगीत के विकास तथा प्रचार-प्रसार हेतु विशेष प्रयास किये। अतः भारतीय समाज सदैव इन विभूतियों का ऋणी रहेगा।

8 Comments

  • Posted March 30, 2021 5:16 am
    by
    अजय कुमार

    स्वागत है।

    इन तथ्यों पर प्रकाश डालने के लिए

  • Posted March 30, 2021 6:24 am
    by
    धर्मेन्द्र सिंह चौहान

    आपने अच्छी सांगीतिक विषय वस्तु पर अच्छी रीति से प्रकाश डाला है।

    • Posted March 30, 2021 6:53 am
      by
      Dinesh Chandra Pathak

      बहुत बहुत धन्यवाद आपका महोदय

  • Posted March 30, 2021 1:34 pm
    by
    डॉ कविता भट्ट 'शैलपुत्री'

    बहुत ज्ञानवर्धक आलेख। हार्दिक बधाई।

  • Posted March 30, 2021 2:32 pm
    by
    Pooran singh

    बहुत सुन्दर पाठक जी। आपने भारतीय संगीत के बारे में विस्तृत जानकारी दी सादर धन्यवाद

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