नज़र में उसकी मुहब्बत का इशारा भी न था
बात करना यूँ मेरे दिल को गवारा भी न था।।
दोस्त करते रहे चर्चे तेरी मुहब्बत के
मुस्कुराने के सिवा पास में चारा भी न था।।
वो जो इतराया करे था जवान बेटों पे
उम्र ढलने लगी तो कोई सहारा भी न था।।
माँ का एहसास उस से पूछ “बशर”
नज़र को जिसकी कभी माँ ने उतारा भी न था।
दिनेश चंद्र पाठक “बशर”।।
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नीलाम्बरा.com
बहुत सुन्दर रचना