लिखने चला तुझपे कविता माँ
मन के मृदुल भावों को जगा
बुद्धि, लेखनी दोनों हैं चुप
हृदय निरंतर बोल रहा।।
प्रथम गुरु तुम प्रथम प्रेयसी
प्रथम ईश इस जीवन की
तुम दाता इस तन औ प्राण की
मैं तो बस याचक ठहरा।
तेरी दृष्टि से जग देखा
संस्कारों से पहचाना
रोष से तेरे बुरे को जाना
मन के सब पापों को हरा।।
क्या लिक्खूँ क्या तुझ पर बोलूँ
मैं तो ख़ुद सिरजन तेरा
तेरे चरणों की रज पर माँ
नतमस्तक जीवन मेरा।।
दिनेश चंद्र पाठक “बशर”।।